कहा जाता है कि एक बार साहेब, श्री जगत्राथ स्वामी के दर्षन के लिए जा रहे थे । रास्ते में जौनपुर में एक कएं पर रूके, स्नान-ध्यान किया । जब सब कार्य से निवृत्त हुए तो वहाँ पर चहल-पहल देखकर समीप में खड़े एक आदमी से पूछा, क्यों भाई ? आज यहाँ पर काफी भीड़-भाड़ दिखायी दे रही है, किसी के यहाँ कुछ है क्या ? आदमी बोला, ‘महाराज जी ! आज यहाँ राजा साहेब के यहाँ गृह-प्रवेष का उत्सव है ।’’ साहेब कुछ देर षान्त रहे फिर बोले-‘‘अच्छाा भाई, जाकर राजा से कह देना िकइस महल को रात बारह बजे के पहले-पहले खाली कर देंगे, अन्यथा बारह बजे यह बैठ जायेगा । ’’ इतना कहकर साहेब चल दिये । आदमी ने आकर राजा से सारा वृत्तान्त सुनाया । राजा ने यह बात जब मन्त्रियों ने कहा, ‘‘महाराज ! आज पहला ही दिन है । इतना खर्च किया गया । इस महल को कैसे खाली कर दिया जावे । फिर पंडितों ने षोधकर ही तो महल बनवाया है, पर राजा ने कहा हो सकता है उस सन्त की वाणी सत्य हो । अतः एक दिन महल से हम लोग बाहर ही रह लेगें । सब कामों के अनन्तर रात में महल खाली करवा दिया गया । और जैसे ही रात के बारह बजे पूरी कोठी की छत बैठ गयी । अब तो राजा को बड़ी चिन्ता हुई । उन्होंने समाचार लाने व्यक्ति से कहा कि ‘‘जाओ और उसी कुएँ पर बैठो । जब महात्मा जी वापस लौटे तो मुझसे बिना मिले, उन्हें जाने मत देना ।’’ साहेब सिद्धादास जी रास्ते में चले जा रहे थे। सबेरे का समय था । एक धोबी अपने खेत में पाटा चला था और मस्त होकर एक विरहा गा रहा था, जो इस प्रकार था -
‘‘तू तौ प्रभू मोरे मन ही मा बसे ।
ढूढैं कहाँ अब जाऊँ ।।’’
ठन पंक्तियों को साहेब ने अपनी ‘विरह सत्’ पोथी में लिखा है और इसी आषय, को लेकर उन्होने ‘विरह सत’ पोथी लिखी । वहीं पर साहेब को कण-कण में ब्रह्म के वास की गहन अनुभूति हुई । साहेब ने भात्र-विभोर होकर उस आदमी से कहा, ‘‘भाई एक बार और सुनाओ, तुम्हारा बिरहा बड़ा अच्छा लगा ।’’ उस आदमी ने पुनरावृत्ति की । साहेब ने उसे प्रेम से सुना । अनुभूति और गहन हुई । सर्वत्रं भगवान ही भगवान दिखायी देने लगे । जगन्नाथ स्वामी के दर्षन के लिये पुरी जाने की आवष्यकता न रह गयी । साहेब वहीं से वापस लौट पड़े जब जौनपुर में उस कुए पर पहुंचे, जहाँ उनकी प्रतीक्षा में आदमी बैठाया गया था, तो उसने साहेब को दण्डवत प्रणाम किया और राजाज्ञा बतायी । फिर साहेब को रूकने के लिए कहकर खुद राजा साहेब से बताने चला गयो । जब राजा साहेब ने सुना कि महात्मा जी आये हैं, तो उन्होंने षीघ्र ही पैदल चलकर, साहेब की पावन चरण धूलि अपने सिर पर लगायी और साहेब से राजमहल चलने के लिये विनय किया । साहेब राजा के महल में गये, वहाँ पर राजा की सेवा से साहेब बड़े प्रसन्न हुए । तब अवसर पाकर राजा ने साहेब से आग्रह किया कि महाराज आपकी कृपा से मरा परिवार बचा है । अब आप ही मेरे महल बनवाने का स्थान एवं मुहूर्त षोधकर बताये । तब साहेब के बताये स्थान पर षुभ मुहूर्त में राजा का महल बना । राजा ने साहेब को छः मास घर नहीं आने दिया । वहीं पर साहेब ने हनुमान मन्दिर बनवाया और ‘विरह सत्’ ग्रन्थ लिखा । उन्होंने अपने ग्रन्थ के आदि में लिखा -
विरह सत् यह पोथी, षहर जौनपुर ऋीत ।
सिद्धा पिय पहिचानिए, अपने घट में मीत ।।
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