एक बार साहेब दूलनदास के लड़के की षादी थी, जिसमें खर्च करने के लिए साहेब सिद्धादास 500) रूपया लेकर गये थे, जो उस समय बहुत बड़ी रकम थी । ये वहाँ पर बारात के इन्तजाम, और लेन-देन के अग्रकर्ता गुरू जी द्वारा बना दिये गये थे, जिसका इन्होंने पूर्ण रूपेण निर्वाह किया और बारात की विदाई के बाद बिना हिसाब दिये ही घर चले आये । इनके इस तरह घर चले आने पर गुरूजी के कुल के तोमरदास को इनके ऊपर षक हुआ और उन्होंने साहेब दूलनदास से कहा कि-सिद्धादास का इस तरह घर चला जाना सन्देह पैदा करता है। हमें लगता है कि उन्होंने कुछ घपला किया है, इसीलिए बिना हिसाब दिये चले गये । आपने भी उनको सर्वेसर्वा बना दिया था । क्या हम लोग यह काम नहीं कर सकते थे ? लेकिन दूलनदास साहेब ने कहा िकवे जो कुछ करेंगे, ठीक ही करेंगे । हमें उन पर पूर्ण विष्वास है । साहेब दूलनदास की प्रेरणा से तथा योग-बल से साहेब सिद्धादास ने सारी बात जान ली । व तुरन्त ही घर से चलकर और धर्मे पहुँचकर साहेब दूलनदास से हाथ जोड़कर बोले ‘साहेब, एक बड़ी गलती हो गयी थी, मैं बिना हिसाब दिये ही चला गयो था । इसलिए मैं आयो हूं । आप मुझसे हिसाब ले लें । इतना कहकर सारा हिसाब गुरू जी को, समस्त लोगों की उपस्थिति में दिया, जिसमें पाँच सौ रूप्या अतिरिक्त खर्च हुआ था, जो साहेब ने आपने पास से खर्च किया था, जब गुरू जी इनको रूपया देने लगे तो इन्होंने यह कहकर टाल दिया कि जो रूपये मैंने दान में दे दिये हैं, उसे कैसे ले सकता हूं ? इसके बाद साहेब ने तोमरदास को षाप दिया - ‘जाओ । तुमने जिस धन के लिए मेरे ऊपर इल्जाम लगाया है, वह धन तुम्हारा साथ नहीं देगा ।
बबा साहेब के इस षाप के कारण तोमरदास के घर में दरिद्रता का वास हो गया । उनको घर वदीपुर में पड़ता था, जहाँ उनके घर में अन्न-सम्पत्ति भरी पड़सी थी, वहीं एक दाना अन्न नहीं रह गया और लक्ष्मी उनके घर को छोड़कर चली गयीं । वे एक-एक दांने के लिए मरने लगे । जब उनकी पत्नी को यह बात ज्ञात हुई तो उनहोंने तोमरदास से अपनी गलती की माफी माँगने को साहेब सिद्धादास के पास जाने के लिए प्रेरित किया । पहले तो वे (तोमर-दास) अपने टेक पर अड़े रहे, पर बाद में मजबूर होकर उन्हें साहेब की षरण में आना पड़ा । हरगाँव धाम में आकर उन्होनें विनय का यह पद सुनाया-
सिद्धदायक, सिद्धि दानि गुरू के प्यारे,
सिद्धादास तू विरन हमारे हो ।
चरन तर माथ दीन्ह, लीन्ह सत सरना हो !
मैं बलि जाऊँ सुभाउ, चरन की सेरिया हो ।
विनती करौं कर जोरि, चरन षीष दै न्योछरिया हो !
मंगल-मोद, विनोद सर्व सुख दाता !
रघुवर के प्रिय सन्त, सनेही भ्राता ।
प्रभु
! तोमर का करौ, जस करना होय ।।
तोमरदास के इस प्रकार के विनय करने के विनय करने पर साहेब सिद्धादास प्रसन्न हो गये और उन्होंने उनके घर जाकर एक रात निवास किया । जब सबेरे चलने को हुए तो तोमरदासर की धर्म पत्नी ने दीन भाव से कहा -साहेब ! आज हमारे पास आपकी दक्षिणा देने के लिए कुछ नही है । साहेब उसके अभिप्राय को समझ गये और घर के एक कौने में रखी भूसी को एक डेहरी में डाल दिया और कहा कि इसका पिहानबंद कर लो, सतगुरू की कृपा से तुम इसमें नीचे से अपने काम भर के लिए अन्न पाओगे, लेकिन पिहान को मत खोलना । ऐसा कहकर साहेब चले गये और तोमरदास का जीवन सुखमय हो गया । जो भक्तों के ऊपर साहेब के षीघ्र प्रसन्न हो जाने का एक ज्वलन्त प्रमाण है । साहेब सिद्धादास का जीवन इस तरह के कितने ही अलौकिक चमत्कारों से पूर्ण था ।
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